रावण नहीं धन के देवता कुबेर की थी सोने की लंका, दशानन ने ऐसे किया था हासिल

वेद शास्त्रों के मुताबिक कुंभकर्ण और विभीषण रावण के दो सगे भाई थे। इसके अलावा रावण के एक सौतेला भाई भी थे जिनका नाम कुबेर था। ये वही कुबेर जी हैं जो हम पर धन की कृपा बरसाते हैं। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के अनुसार महर्षि पुलस्त्य ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। महर्षि पुलस्त्य का विवाह राजा तृणबिंदु की पुत्री से हुआ था। इनके पुत्र का नाम विश्रवा था। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के मुताबिक, ब्रह्माजी ने महर्षि पुलस्त्य को अपना पुत्र माना था। महर्षि पुलस्त्य का विवाह राजा तृणबिंदु की पुत्री से हुआ था।

महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा थे। विश्रवा अपने पिता के दिए हुए संस्कारों के अनुसार सत्यवादी व जितेंद्रीय थे। विश्रवा के इन गुणों से प्रसन्न होकर महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या इड़विड़ा का विवाह विश्रवा के साथ कर दिया। महर्षि विश्रवा और इड़विड़ा से एक पुत्र हुआ। जिसका नाम वैश्रवण रखा गया। वैश्रवण नाम धन कुबेर का ही है। इसके बाद महर्षि विश्रवा ने दूसरा विवाह किया। इनकी दूसरी पत्नी का नाम कैकसी था। कैकसी राक्षस कुल की कन्या थीं। कैकसी के गर्भ से तीन पुत्रों का जन्म हुआ। जिनका नाम रावण, कुंभकर्ण और विभीषण था। इस तरह से रावण, कुबेर का सौतेला भाई हुआ।

रामायण के मुताबिक, महर्षि विश्रवा ने कुबेरदेव को रहने के लिए सोने की लंका प्रदान की थी और धन कुबेर की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उनको उत्तर दिशा का स्वामी और धनाध्यक्ष बना दिया। इसके साथ ही ब्रह्माजी ने कुबेरदेव को मन की गति से चलने वाला पुष्पक विमान भी दिया। लेकिन रावण की हट और अपने पिता के कहने पर कुबेर जी ने सोने की लंका अपने भाई रावण को दे दी। फिर उन्होंने अपने लिए कैलाश पर्वत पर अलकापुरी बसाई।

जब रावण विश्व विजय पर निकला तो उसने अलकापुरी को भी जीत लिया। इस कारण से तो रावण और कुबेरदेव के मध्य भयंकर युद्ध भी हुआ था। लेकिन रावण को ब्रह्माजी का वरदान प्राप्त था, जिस वजह से उसने कुबेर को हरा दिया था और बलपूर्वक ब्रह्माजी द्वारा दिया हुआ पुष्पक विमान भी कुबेर जी से छीन लिया।

धर्म शास्त्रों के अनुसार, ऐसा कहा जाता है कि कुबेरदेव अपने पिछले जन्म में चोर थे। कहते हैं कि वह अन्य जगहों के साथ-साथ देव मंदिरों में भी चोरी किया करते थे। एक बार कुबेर जी चोरी करने के लिए शिव मंदिर में घुस गए। उस समय में मंदिरों में बहुत माल-खजाना हुआ करता था। खजाने को ढूंढने के लिए कुबेर ने मंदिर में दीपक जलाया, लेकिन तेज हवा के कारण वह दीपक बुझ गया। यह क्रम कई बार तक चलता रहा और कुबेर जी बार-बार प्रयास करते रहे। इसे देखकर भोले-भाले और औढरदानी भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उस बार-बार हुए क्रम को दीप आराधना समझकर अगले जन्म में कुबेर को धनपति होने का वरदान दे दिया।

कुबेर जी धन के स्वामी और राजाओं के अधिपति हैं। कुबेर जी को देवताओं का धनाध्यक्ष भी माना जाता है। इसीलिए इनको राजाधिराज के नाम से भी जाना जाता है। गंधमादन पर्वत पर रखी हुई संपत्ति के चौथे भाग पर इनका नियंत्रण है। उस संपत्ति से सिर्फ सोलहवां भाग ही मानवों को दिया जाता है। कुबेरदेव जी नौ-निधियों के अधिपति भी हैं। ये निधियां हैं- कच्छप, मुकुंद, कुंद, पद्म, महापद्म, शंख, मकर, वर्चस और नील। ऐसा माना जाता है कि इन निधियों में से एक निधि अनंत वैभव देने वाली है। कुबेर जी भगवान शिव के मित्र हैं। इसीलिए जो मनुष्य कुबेर की पूजा करता है, उसकी भोले नाथ आपत्तियों के समय रक्षा करते हैं। सभी पूजा-उत्सवों, यज्ञ-यागादि, और दस दिक्पालों के रूप में भी कुबेरदेव की पूजा उपासना की जाती है। कुबेरदेव उत्तराधिपति अर्थात् उत्तर दिशा के अधिपति हैं।

शास्त्रों के मुताबिक, कुबेरदेव बड़े से उदर यानी कि बड़े से पेट वाले हैं। इनका शरीर पीले रंग का है। ये मुकुट के साथ-साथ किरीट आदि जैसे आभूषण धारण करते हैं। इनके एक हाथ में गदा है और दूसरे हाथ से ये धन देने वाली मुद्रा में रहते हैं। इनकी सवारी पुष्पक विमान है। मनुष्य इनको पालकी पर बिठाते हैं और इनकी पूजा-अर्चना आदि करते हैं।

कुबेर को वैश्रवण के नाम से तो जाना ही जाता है। इसके साथ इनको एड़विड़ और एकाक्षपिंगल के नाम से भी जाना जाता है। इनकी माता का नाम इड़विड़ा था, जिस कारण इनको एड़विड़ नाम मिला। बताया जाता है कि इन्होंने माता पार्वती की ओर देख दिया था, जिससे इनकी दाहिनी ओर की आंख पीली पड़ गई थी। तब से इनका नाम एकाक्षपिंगाल भी हो गया।

महाभारत सभापर्व के दसवें अध्याय के मुताबिक, कुबेर की सभा सौ योजन लंबी और 70 योजन चौड़ी है। इसके साथ ही वह सभा मायावी भी है। इस सभा में कई सारे सोने के कक्ष बने हुए हैं। उसके खम्भे मणियों से जड़े हुए और स्वर्ण के बने हैं। इस सभा में बहुत सुंदर सिंहासन भी है। जिस पर कुबेरदेव ऋद्धि तथा अन्य सौ स्त्रियों के साथ विराजमान होते हैं। इस सभा में माता महालक्ष्मी, कई सारे ब्रह्मऋर्षि, देवर्षि और राजर्षि भी उपस्थित रहते हैं।

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